चुनाव का बदलता रूप

(इस आर्टिकल में चुनाव के स्वरूप में जो वीभत्स बदलाव हो रहे हैं उन्हें कैसे सुधारा जाए, इसकी चर्चा की गई है।)


 चुनाव को एक लोकतांत्रिक देश में राष्ट्रीय पर्व का दर्जा मिला हुआ है। एक लोकतांत्रिक देश को भली-भांति सुचारू रूप से चलाने के लिए यह एक प्रभावशाली शस्त्र की तरह काम करता है लेकिन आधुनिक समय में इसमें न चाहते हुए भी कुछ अवांछित बदलाव आते जा रहे हैं जिससे इसका प्रभावशाली रूप समाप्त होता जा रहा है। आइए उनमें से कुछ प्रमुख बिंदुओं की चर्चा की जाए।

  1. चुनाव के प्रचार लिए पैसे और संसाधनों का दुरुपयोग
आजकल लगभग जिसके पास पैसा होता है वही चुनाव में खड़ा होने की सोच लेता है, समाज सेवा के लिए नहीं बल्कि इस पैसे को लगा कर चुनाव जीतने के बाद अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए। चुनाव में खड़ा होने के बाद अपनी जीत के लिए लोगों से लुभावने वादे करने और इन वादों का प्रचार करने के लिए लोगों तक अपने कार्यकर्ताओं को पहुंचाने, रेलियां करवाने आदि में अत्यधिक धन का खर्च होता है। यदि इस पैसे को समाज की सेवा में सीधे खर्च किया जाए तो कई लोगों का भला हो सकता है।

2. जाति और धर्म के नाम पर चुनाव का प्रचार

आज के चुनाव प्रचार में नेता किस जाति अथवा धर्म का है इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है, ऐसे में देशहित की बात नहीं की जाती। इस प्रकार चुनाव का जो मुख्य उद्देश्य है वह अधूरा ही रह जाता है। यदि जाति और धर्म के नाम पर प्रचार ना होकर देश के लिए कुछ अच्छा करने की भावना से चुनाव में अपना प्रदर्शन किया जाए तो यह देश के लिए सबसे अच्छा होगा।

3. भाषण में अभद्र भाषा का प्रयोग

चुनाव में जब भी कोई अपनी बातों को जनता के सामने रखने के लिए भाषण प्रस्तुत करता है तो उसमें दूसरों की टांग खींचना और उन पर अभद्र टिप्पणियां करना इस बात को सबसे आगे रखता है। ऐसा करके वह समाज सेवा की भावना से बहुत दूर हो जाता है। अपने भाषण में दूसरों पर टिप्पणी करने से अच्छा है कि दूसरों की गलतियों को कैसे सुधारा जाए और स्वयं उसे ना दोहराया जाए इस  बात पर ध्यान दिया जाए, तभी देश का वास्तव में कल्याण हो सकता है।


4. सांप्रदायिक दंगे भड़काने का कार्य

आजकल चुनाव को जीतने के लिए लोग मजहब और धर्म को लक्ष्य बनाते हैं और सांप्रदायिक दंगे भड़काने का भी कार्य भी करना पड़े तो वे पीछे नहीं हटते। इस कार्य के लिए भी कुछ असामाजिक तत्वों का सहारा लेते हैं। इसमें भी वे अपने धन को बर्बाद ही करते हैं यदि इस धन को वे वास्तव में लोगों की सेवा में खर्च करें तो लोग स्वयं ही उन्हें वोट देंगे, यह बात उन्हें समझ में नहीं आती।

5. पार्टी वाद और परिवारवाद

पार्टी वाद और परिवारवाद दोनों ही देश के हित के लिए अच्छे नहीं हैं। पार्टी वाद के अनुसार यदि हम नेता का चुनाव करते हैं, तो यह देख कर करते हैं कि पूरे देश में उसका वर्चस्व क्या है, उस पार्टी का मुखिया कौन है? ऐसे में स्थानिक नेता का सही प्रकार से हम चुनाव नहीं कर पाते और हमारी स्थानीय समस्याएं वैसी की वैसी ही धरी रह जाती हैं। परिवारवाद भी कुछ ऐसा ही है। परिवारवाद और पार्टी वाद दोनों ही आधार अच्छे नेता के चुनाव के लिए बाधक है।


चुनाव के इस बदलते रूप को सुधारने का उपाय

हमारे लोकतांत्रिक देश के लिए समय-समय पर चुनाव के द्वारा सही नेता को चुनकर उसके हाथ में देश की बागडोर सौंपना यह अत्यंत जरूरी है लेकिन इससे भी ज़्यादा जरूरी है कि सही नेता का चुनाव हो और सही लोग ही चुनाव में खड़े हो। इसके लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है--
  1. चुनाव में जीत कर विधायक या सांसद बनकर लोग धन उगाही करते हैं और इसके लिए वे भ्रष्टाचार के पथ पर चलते हैं। वैसा ना कर सके इसलिए सांसद और विधायक के लिए जो छूंटें दी जाती हैं तथा उन्हें जो सुविधाएं दी जाती हैं उन्हें कम किया जाना चाहिए क्योंकि भाषण देने और मुद्दे उठाने के अलावा वह ऐसा कोई भी कठिन कार्य नहीं करते जो देश के अन्य सरकारी कर्मचारी और हमारे देश के सैनिक करते हैं। उन्हें मिलने वाले पेंशन और भत्ते  में भी कटौती की जानी चाहिए।
  2. यदि चुनाव जीतने के बाद कोई सांसद या विधायक अत्यधिक धन संपत्ति अर्जित करता है या ज़्यादा से ज़्यादा जमीनों का मालिक हो जाता है तो इस्तीफा या रिटायरमेंट के बाद अथवा यूं कहें की कुर्सी छोड़ने के बाद इस सारी धन-संपत्ति को जो उसने चुनाव जीतने के बाद अर्जित की है, सरकारी खाते में जमा कर देना चाहिए क्योंकि यह वास्तव में सरकार का यानी जनता का पैसा है।
  3. केवल उन्हीं लोगों को चुनाव में खड़ा होने का अधिकार मिलना चाहिए जिनका वास्तव में समाज सेवा से कुछ ना कुछ संबंध रहा हो अथवा जो समाज सेवा में रुचि रखते हैं और देश हित में अपना स्वयं का भी पैसा लगा सकते हैं।
  4. चुनाव के समय जो लोग लंबे चौड़े वादे करते हैं चुनाव जीतने के बाद यदि उन वादों को पूरा नहीं करते तो उन्हें कुछ ना कुछ हर्जाना या भुगतान करने की सजा मुकर्रर की जानी चाहिए।
  5. जो चुनाव में खड़ा होता है वह वास्तव में पूरे देश का होता है ऐसे में यदि वह किसी एक धर्म या पंथ को टारगेट करता है तो उसे कानूनी तौर पर कुछ ना कुछ सजा अवश्य देनी चाहिए तभी धर्म और पंथ के नाम पर चुनाव लड़ना लोग बंद करेंगे।
  6. भारत देश में हर राज्य में कहीं ना कहीं हर साल चुनाव होता रहता है, इससे सरकारी कर्मचारी अपने कामों को छोड़कर इसी में व्यस्त हो जाते हैं और देश के विकास में बाधा पहुंचती है। अतः ऐसा नियम बनाया जाना चाहिए की सभी राज्यों में एक साथ चुनाव कराया जा सके ताकि बचे हुए समय में देश की विकास पर ध्यान दिया जा सके।
यदि चुनाव के इस बदलते विभत्स रूप को हम आज नहीं बदल पाए तो हमारे देश में केवल चुनाव लड़ने के अलावा और किसी भी कार्य पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। यदि हम वास्तव में अपने देश का विकास चाहते हैं तो चुनाव को शक्तिशाली रूप से प्रयोग करना होगा ताकि देश का चहुंमुखी विकास हो सके और जो ज्वलंत मुद्दे हैं, उन पर ध्यान दिया जा सके।

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