लालच के पुजारी (लघु कथा)

 ('लालच के पुजारी' दहेज प्रथा पर आधारित लघु कथा है, यह लघुकथा आज के उन लोगों के लिए शिक्षाप्रद है, जो अपनी बेटी के लिए एक ही लड़का सुखी परिवार की तलाश में दहेज के लालची लोगों के घर में अपनी बेटी का विवाह करने को राजी हो जाते हैं।)



'जो दिखता है वो बिकता है 'यह बात सिर्फ निर्जीव वस्तुओं के लिए नहीं बल्कि इंसानों के लिए भी सत्य है।

बलिया शहर के एक नामी मोहल्ले में एक छोटा-सा परिवार रहता था। पति-पत्नी एक लड़का रमेश और एक लड़की रूपा, परिवार में बस इतने ही लोग थे। इन्हें किसी बात की कमी भी नहीं थी क्योंकि घर के मुखिया की सरकारी सर्विस थी लेकिन यह जरूरी नहीं कि जिसे किसी बात की कमी ना हो वह संतोष से रहे, इस परिवार में भी लालच की कमी नहीं थी। मां ने अपने दोनों बच्चों को जीने के लिए जरूरी आवश्यक शिक्षा कभी दी ही नहीं क्योंकि खुद भी उसमें वैसे संस्कार नहीं थे।

रूपा कद में 5 फीट से भी छोटी थी इसलिए उसके विवाह योग्य कोई वर जल्दी मिल नहीं रहा था। बड़ी कोशिशों के बाद एक गांव में एक अच्छे घर में उसका रिश्ता तय हुआ, मामूली खर्चे में उसकी शादी भी हो गई, लेकिन रूपा ससुराल में अधिक दिन नहीं टिक पाई। कभी तो उसकी तबीयत खराब हो जाती और कभी कोई परेशानी बताकर अपने मायके आ जाती थी। एक ही लड़की होने के कारण मां को भी उससे बहुत मोह था इसलिए उसने भी उसे मायके में ही रखने का निर्णय लिया और उसके पति यानी दामाद जी से से कह दिया " जब तक तुम परिवार से अलग नहीं हो जाओगे मेरी लड़की ससुराल नहीं जाएगी।"अब रूपा अपने मायके में ही रहने लगी और वहीं उसके तीनों बच्चों का जन्म भी हुआ और उनका पालन पोषण भी वही होने लगा।

 रमेश की भी शादी की उम्र हो गई थी तो उसके लिए भी रिश्ते आते रहते थे। कई लड़कियां देखने के बाद भी उसकी मां को कोई लड़की पसंद नहीं आ रही थी इसका कारण था 'दहेज की मांग'। उनका कहना था कि एक ही लड़का है, उसकी शादी में खर्चा भी बहुत करना पड़ेगा और फिर लड़की घर में आएगी  तो सब कुछ उसी का होगा इसलिए दहेज लेना ही पड़ेगा। तलाश जारी थी कि जहां अच्छा दहेज लाने वाली सुंदर और सुशील लड़की मिल जाए वहां शादी तय की जाएगी।

रमेश के पिता को हाई ब्लड प्रेशर था और उसके कारण उन्हें एक दो बार पैरालिसिस के हल्के अटैक आ चुके थे। संजोगवश एक बार पैरालिसिस का बड़ा अटैक आया जिसमें रमेश के पिता पूरी तरह बिस्तर पर पड़ने को मजबूर हो गए। अब उनका नित्य कर्म दूसरों को करना पड़ता था। उनकी सरकारी नौकरी पर उनके स्थान पर घर में किसी और को जाना था, लेकिन क्योंकि रमेश बचपन से ही कामचोर किस्म का लड़का था और मेहनत करना नहीं जानता था, उसने उस काम से इनकार कर दिया लेकिन रूपा के पति ने अपने ससुर के स्थान पर काम करना शुरू कर दिया। इस काम के कारण रूपा के पति को भी अपने ससुराल में ही रहना पड़ रहा था और धीरे-धीरे उन्हें वहीं रहने की आदत-सी पड़ गई। अब कभी-कभी वे अपने घर घूम आया करते थे क्योंकि वे पारिवारिक किस्म के व्यक्ति थे और अपने परिवार से रिश्ता नहीं तोड़ना चाहते थे।

कुछ सालों बाद रमेश के पिता रिटायर हो गए और रिटायरमेंट के बाद उन्हें जो पैसे मिले, उनमें से कुछ पैसों से रमेश की मां ने एक अच्छा आलीशान घर बनवा लिया क्योंकि कोई भी लड़की वाले आते हैं तो पहले लड़के का घर ही देखते हैं और बचे हुए पैसों को हिफाजत से फिक्स कर दिया। अब इकलौता लड़का, ऊपर से आलीशान मकान दहेज की डिमांड थोड़ी और बढ़ गई। आजकल के लोग लड़की के लिए एक ही लड़केवाला छोटा और संपन्न परिवार देखते हैं, ताकि परिवार में झगड़े के झंझटों से बचा जा सके। ऐसे ही घर की तलाश में एक सीधा-साधा परिवार था, लड़की भी सुंदर और सुशील थी, पढ़ी-लिखी के साथ-साथ पैसा कमाने वाली भी थी, लड़की वालों ने सिर्फ लड़के की सुंदर सूरत और उसका घर देखा और बस उस रिश्ते की पीछे ही पड़ गये। जब रमेश की मां को ऐसा रिश्ता मिला तब  भी उसने अपनी दहेज की मोटी रकम की मांग रखी, अपनी लड़की को कौन सुखी नहीं देखना चाहता और इसी चाहत के वशीभूत होकर वह परिवार दहेज की रकम देकर शादी करने के लिए तैयार हो गया।

शादी तय हो जाने पर लड़की पक्ष और लड़का पक्ष दोनों खुश थे, लड़की वाले यह सोच कर खुश थे कि लड़की सुखी घर में जाएगी और उसे एक अच्छा परिवार मिलेगा लेकिन लड़के वाले यह सोचकर खुश थे कि उन्हें अपना मनचाहा वह हर चीज मिलेगा जो उन्होंने सोचा था। पहले सगाई हुई फिर शादी हुई, शादी के बाद दुल्हन सोना अपने घर आई ।अपने साथ बहुत ही महंगी चीजें तो लाई ही, कुछ अरमान लेकर यह सोचकर आई कि जहां वह जा रही है वहां एक ही बहू होने के कारण अपने सास की बेटी बनकर रहेगी, उसे अपनी सांस से मां का प्यार मिलेगा, वह अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करके अपने सपने पूरे करेगी, यह सपना भी दिल में संजोकर आई लेकिन ससुराल आने के बाद कुछ ही महीनों में उसकी सारी गलतफहमी दूर हो गई और साथ ही सारे सपने भी टूट गए।

रूपा इतने दिनों से मायके में रहने के कारण अब उसे अपना ही घर समझकर वहां की मालकिन बन बैठी थी, सब कुछ उसी के अनुसार होता था, हर कोई उसी की बात मानता था। जब वह देखती ही कोई उसके खिलाफ जा रहा है तो वह अपनी मां के सामने मगरमच्छ के झूठे आंसू बहाती और वहां से चले जाने की धमकी देती और अब रमेश की शादी के बाद तो और यह भी कहने लगी थी "अब तक तो मैंने ही  सब कुछ संभाला है अब मेरी कोई बात क्यों सुनेगा भला! मेरी जरूरत ही क्या है!" पढ़ी-लिखी होने के बावजूद सोना की बातें कोई नहीं मानता था और उसे ही झुठला दिया जाता था। उसे अगर किसी चीज की कमी भी होती तो कोई पूछने वाला नहीं था और ना ही किसी को उसकी  परवाह थी। 

क्योंकि वह एक अच्छे घराने की लड़की थी, अपने से बड़ों से बहस करना उसके संस्कार में शामिल नहीं था इसी कारण वह विवश कर चुप होकर रह जाती। अब उसने शादी से पहले जो जॉब कर रही थी उसे जारी रखने का निर्णय लिया और वह दिल्ली जहां उसके माता-पिता भी रहते थे उससे कुछ ही दूर एक मकान किराए पर लेकर रमेश के साथ रहने लगी, यह सोच कर कि दोनों पति पत्नी काम करेंगे और खुशी से रहेंगे लेकिन यहां भी उसकी सोच गलत साबित हो गई। रमेश को शुरू से ही काम करना अच्छा नहीं लगता था इसलिए उसकी पत्नी काम करती है और उसका खर्च चलाती है इसके बावजूद उसे कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई और वह घर पर ही रहने लगा और अपनी मां, दीदी और अपने सभी रिश्तेदारों से यही बताया कि वह भी काम करता है, वो तो यही सोचते थे की हमारा लड़का बहुत लायक है लेकिन वास्तव में उसका जेबखर्च भी उसकी पत्नी ही चलाती थी। यह किसी भी पति के लिए बेहद शर्म की बात है कि वह सक्षम होते हुए भी कोई काम ना करें और अपनी पत्नी के पैसों से अपना खर्च चलाएं लेकिन रमेश को इस बात की समझ कहां थी।

जब कभी बलिया से रमेश की मां और दीदी का फोन आता तो वह उनके पास चला जाता। सोना उसे खर्चे के लिए पैसे भी देती थी, कभी-कभार सोना को भी अपने ससुर की तबीयत देखने के लिए अपना काम छोड़ कर वहां जाना पड़ता था लेकिन जब भी वह अपनी ससुराल जाती तो उसे प्यार नहीं मिलता था और ना ही उसकी वहां पर कदर होती थी। एक बार जब वह होली के मौके पर वहां गई तो उसने त्योहार पर अपने गहने पहने और अब जब अपने गहनों को अपने साथ दिल्ली लाने के लिए रखने लगी तो उसकी ननद रूपा ने उसके गहने उससे छीनकर अपने पास रख लिया, उसे ले जाने से मना कर दिया। इतना दहेज देकर शादी करने के बावजूद उसके अपने गहने भी अपने नहीं रहे। कभी-कभार उनके रिश्तेदार जब बहू को देखने आते थे तो कुछ तोहफे या फिर कुछ पैसे दे दिया करते थे लेकिन वह भी उससे उसकी सास और ननद ले लेती थी। यह सारी बातें रूपा को दिल से दुखी कर देती थी लेकिन उसका साथ देने वाला कोई नहीं था यहां तक कि उसका पति रमेश भी सिर्फ अपनी मां और दीदी की ही बात सुनता था उसकी भावनाओं को कभी नहीं समझता था।


शादी को दो-ढाई साल हो चुके थे और सब कुछ ऐसा ही चल रहा था एक बार रमेश को उसके पिताजी की तबीयत खराब होने की सूचना मिली। रमेश अकेला ही जा रहा था लेकिन सोना ने अपने ससुर जी को देखने के लिए उनके साथ चलने का निर्णय लिया क्योंकि वह अपने ससुर जी का आदर करती थी। जब वे बलिया पहुंचे तो अगले दिन सोना के पिता का फोन आया और उन्होंने उनसे अचानक बलिया जाने का कारण पूछा तब सोना की सास ने कुछ ऐसे अपशब्द कहे जो सोना के पिता को बहुत बुरे लगे। अपने पिता का अपमान सोना को भी अच्छा नहीं लगा लेकिन वह कर ही क्या सकती थी। अगले दिन उसके ससुर जी की मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद की जाने वाली सभी विधि-विधानों में सभी रिश्तेदारों के साथ सोना ने अपनी सारी जिम्मेदारियां निभाई। जिस दिन उसके ससुर की तेरहवीं क्रिया कर्म था उस दिन कई रिश्तेदार घर पर मौजूद थे, सभी लोगों ने गहने- कपड़े पहन रखे थे सिवाय सोना के क्योंकि उसके पास पहनने के लिए कोई गहने नहीं थे लेकिन इस बात पर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। उसकी मां भी क्रिया-कर्म में भाग लेने के लिए आई थी लेकिन जहां पर बेटी की कदर ना हो वहां उसकी मां की कौन कदर करता है।

अपने ससुराल वालों का अब तक का व्यवहार देखकर सोना यह बात अच्छी तरह समझ चुकी थी कि उसका पति, सास ननद ये सभी लालच के पुजारी हैं, धन को छोड़कर वे इंसानों की कदर करना नहीं जानते थे। उसने सोच लिया कि अगर वह उनकी इसी तरह कदर करती रही और एक आदर्श बहू बनी रही तो एक दिन वे उसकी बलि  लालच के देवता को चढ़ा देंगे। क्रिया-कर्म के बाद वह अकेले ही अपनी परीक्षा के लिए निकल पड़ी और अपनी परीक्षा देने के बाद पुनः जब दिल्ली जाने के लिए रवाना हुई तो ट्रेन में बैठे-बैठे उसने अपने बीते हुए जीवन को और आगे आने वाले जीवन के बारे में सब कुछ विस्तार से सोचना शुरू किया।

सोना ने अपने बीते हुए विवाहित जीवन को खंगाल कर इतना तो समझ लिया था कि रमेश एक काबिल पति नहीं है, जो अपनी पत्नी की भावनाओं की कदर करता हो। पति-पत्नी का रिश्ता किसी गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह है, जिसे आगे ले जाने के लिए दोनों को एक बराबर होना चाहिए, एक जैसा ही परिश्रम करना चाहिए लेकिन यहां तो सिर्फ सोना ही इस रिश्ते के लिए अब तक अपना सब कुछ बदल रही थी और परिश्रम भी कर रही थी, रमेश ने अब तक अपने जीवन में कोई बदलाव नहीं लाया था जो एक अच्छा पति होने के लिए जरूरी है। जो एक अच्छा पति नहीं हो सकता, वह आगे चलकर एक लायक पिता भी नहीं बन सकता इसलिए उसने सबसे पहले रमेश को बदलने की ठान ली। सोना ने सोच लिया कि भले ही उसे थोड़ा कठोर व्यवहार करना पड़े लेकिन वह रमेश के विचारों को बदलने की पूरी कोशिश करेगी।

दिल्ली पहुंचने के बाद वह जिस किराए के मकान पर रह रही थी वहां से  अपना सारा सामान अपने मायके अपने माता-पिता के घर पर शिफ्ट कर लिया। रमेश से कह दिया कि उसने अपनी पढ़ाई के खर्चे के लिए  जो लोन ले रखा है, उसे चुकाने में और आगे की पढ़ाई पूरी करने में कम से कम 5 से 10 साल तक  किराए के मकान पर रहने  के लिए, उसका किराया चुकाने में और किसी भी अन्य फिजूल खर्चे के लिए वह सक्षम नहीं है। और फिर उसे सब कुछ अकेले ही तो देखना है इसलिए रमेश को  उसके साथ उसके माता-पिता के घर पर ही  रहना पड़ेगा। रमेश के पास सोना के साथ उसके घर पर रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था। सोना ने  सोच लिया था कि वह कभी भी रमेश से गुस्से से कुछ भी नहीं बोलेगी लेकिन गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन की तरह वह सब कुछ शांत ढंग से ठीक करने की कोशिश करेगी, उसने उसे पहले की तरह जेब खर्च देना भी बंद कर दिया ताकि वह पैसों की कदर कर सके क्योंकि जो इंसान खुद मेहनत करके नहीं कमाता वह दूसरों के कमाए हुए पैसों की कदर भी नहीं करता। अपनी शादी के पहले रमेश अपने पिता के पैसों से अपना खर्च चलाया करता था और शादी के बाद अपनी पत्नी के पैसों से, अब तक उसने खुद की कमाई से अपना खर्च चलाना सीखा ही नहीं था।


सोना अपने पिता के घर रह कर  अपनी नौकरी करने लगी। उसके घर पर उसके अन्य भाई-बहन भी कोई ना कोई काम करते थे, सो सुबह ही वो अपने काम पर चले जाया करते थे। घर पर केवल उसकी मां और रमेश रह जाते तो रमेश को भी अपनी सास के साथ मिलकर घर के काम में हाथ बंटाना पड़ता था।

 कभी-कभी इस तरह घर पर रहकर रमेश को औरतों की तरह काम करना खलता था वह सोना से कहता था " क्या हम पहले की तरह फिर से किराए के रूम पर नहीं रह सकते।" तो सोना उससे कहती- "नहीं रमेश! अगर यह संभव होता तो हम जरूर रहते! महंगाई कितनी बढ़ रही है तुम देख ही रहे हो घर के खर्च के लिए मुझे पैसे देने होते हैं और फिर अपनी पढ़ाई के लिए भी। तुम्हारी मां तो तुमसे बहुत प्यार करती हैं अगर वह तुम्हें घर खरीदने के लिए पैसे दे दें और तुम अगर एक छोटा सा फ्लैट खरीद सको, तभी ऐसा संभव है लेकिन तुम्हारी मां तुम्हें पैसे तो नहीं दे सकती न... और फिर अपने माता-पिता के घर पर रहने में बुराई ही क्या है! तुम्हारी दीदी भी तो तुम्हारे घर रहती है ना अपने पति के साथ! जब मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर रहती हूं तो तुम्हारे कहने पर मैं सब कुछ बर्दाश्त कर लेती हूं तो क्या तुम मेरे लिए मेरे घर पर नहीं रह सकते! यहां पर तो तुम्हें कोई बुरा-भला बोलने वाला भी नहीं है, सब तुमसे प्यार से ही बातें करते हैं। और तुम्हें तो इतनी भी आज़ादी है कि तुम जब चाहो तब अपनी मां से मिलने जा सकते हो।"सोना ने प्यार भरे शब्दों में उत्तर दिया।

सोना के घर पर सभी लोग रमेश से प्यार भरी वाणी तो बोलते थे लेकिन उससे घर जमाई वाला ही व्यवहार करते थे क्योंकि उसे सही रास्ते पर लाने के लिए यह ज़रूरी था। जब उसे अपने मन मुताबिक चीज़ो को खरीदने के लिए पैसे मिलना बंद हो गए तब उसे धीरे-धीरे पैसों की अहमियत समझ में आने लगी।

एक बार रमेश ने अपने घर बलिया जाने का निर्णय लिया और सोना से भी कहा कि चलो घूम आया जाए लेकिन सोना ने रमेश के साथ उसके घर जाने से मना कर दिया यह कहते हुए "अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी और वैसे भी वहां पर मेरी ज़रूरत ही क्या है? अगर तुम्हारी दीदी और मां को मुझसे मिलने का मन हो तो वे लोग यहीं पर आकर मुझसे मिल सकती हैं! उनके पास तो कोई नौकरी नहीं है, उन्हें तो छुट्टी ही छुट्टी है!..देखो रमेश! मैंने तुम्हें पूरी छूट दी है तुम जहां चाहो वहां रह सकते हो सबसे मिल सकते हो, तो मेरा भी पूरा हक है कि मैं जहां चाहूं वहां रहूं और जहां नहीं चाहूं वहां नहीं जाऊं!  अगले महीने मेरी एक प्रिय सहेली  की शादी भी है, जिसमें हम दोनों को चलना है और हां शादी में पहनने के लिए बलिया से मेरे गहने लेते आना! तुम्हारी दीदी ने अपने पास रखे हैं, कहा था कि जब ज़रूरत होगी मिल जाएगा।"प्यार भरी वाणी में यह कहते हुए उसने रमेश को केवल इतने ही पैसे दिए जिसमें वह दिल्ली से बलिया तक का किराया चुका सके, उसके जेब खर्च के लिए कुछ भी  नहीं दिया। पहले की तरह वह उसके लिए कपड़े भी नहीं खरीदती थी। ऐसा व्यवहार करते हुए सोना इस बात का भी ध्यान रखती थी रमेश अपने खर्चों को पूरा करने के लिए चोरी जैसा गलत काम ना करें और काम करने की और पैसा कमाने की अहमियत को समझना सीख जाए। उसे ऐसा करते हुए बुरा भी लगता था लेकिन रमेश की बुद्धि को ठीक करने के लिए यह व्यवहार ज़रूरी था।


यहां बलिया में रमेश के दीदी और जीजा जी ने धीरे-धीरे  सारी संपत्ति पर अधिकार करना शुरू कर दिया था, उसकी मां को पेंशन में जो पैसे मिलते थे वह पैसे भी रूपा अपने बच्चों की पढ़ाई और जरूरतों पर ही खर्च करने लगती , अपनी मां को केवल कुछ ही पैसे उसके खर्चे के अनुसार दिया करती थी। जब रमेश खाली जेब मां के घर पहुंचा तो वहां उसे खर्चे के लिए पैसे देने वाला कोई नहीं था। पहले जब वह बलिया आता था तो सोना उसे जो पैसे देती थी उसे वह अपने दीदी के बच्चों को गिफ्ट देने में और अपने खर्च के लिए इस्तेमाल किया करता था लेकिन अब ऐसा नहीं था और जो लालची लोग होते हैं उन्हें एक दूसरे की परवाह नहीं होती बल्कि एक दूसरे से मिलने वाले चीज़ो की परवाह होती है। खाली हाथ आने पर रमेश को पहले जैसा सम्मान इस बार नहीं मिला। अब पहले की तरह उसे अपने पिता के पैसों पर अधिकार जमाने का अधिकार भी नहीं था। जब उसने अपनी दीदी से अपनी पत्नी के गहने मांगे तो उसने देने से इनकार कर दिया और उसकी मां ने भी उसका पक्ष लिया और उल्टा रमेश को ही बुरा-भला सुना दिया।

 रमेश कुछ दिन बलिया रहने के बाद जैसे-तैसे किराए के पैसे जमा करके फिर सोना के पास दिल्ली लौट गया। और अब, जब उसे पैसों की अहमियत समझ में आने लगी थी तब  किसी ने उसे एक छोटा सा काम दिलवाया तो वह काम करने के लिए राज़ी हो गया। सोना और उसके घर वाले तो यही चाहते थे कि रमेश एक लायक इंसान बन जाए। लेकिन अभी भी सोना ने रमेश को पैसों से दूर ही रखा और अपनी ही पैसे से संबंधित मजबूरियां उसे गिनाते रहती थी क्योंकि वह जानती थी कि जैसे ही रमेश को फिर से पैसे मिलने लगेंगे वह पहले की तरह बन जाएगा, उल्टा रमेश से ही कभी-कभार उसके पैसों से कुछ चीजें मंगवा लिया करती थी। कुछ सालों तक काम करने के बाद रमेश को काम करना अच्छा लगने लगा और वह धीरे-धीरे एक मेहनती इंसान बन गया। अब रमेश और सोना दोनों मिलजुल कर काम करते, घर का भी और पैसा कमाने का भी और दोनों खुश थे।

एक ही बेटा होने के कारण रमेश अपनी मां से मिलने जरूर जाता था लेकिन सोना कभी भी लालच के पुजारियों से मिलने नहीं गई और भविष्य में भी उनसे ना मिलने का प्रण ले लिया। अगर सोना ने सोच विचार से काम नहीं लिया होता तो अब तक वह लालच के पुजारियों द्वारा लालच के देवता को भेंट चढ़ चुकी होती। सोना ने निर्णय ले लिया था कि यदि कभी रमेश अपने घर वालों के कहने पर बदल भी जाए तो वह इस बात के प्रति सतर्क और सावधान रहेगी और लालच के पुजारियों पर कभी विश्वास नहीं करेगी क्योंकि उनका कोई ईमान नहीं होता।



 शिक्षा

लड़की के लिए एक लड़का छोटा परिवार ढूंढने से अच्छा है लड़की को ऐसा संस्कार दिया जाए कि वह जिस परिवार ने दी जाए वहां खुद भी सुखी रहे और दूसरों को भी सुखी रखे। यदि संयोगवश लड़की को सुखी घर में विवाह करने के चक्कर में कभी लालच के पुजारियों के साथ पाला पड़ ही जाए तो सोच विचार कर काम लेना चाहिए, ना ही उन से डरना चाहिए और ना ही उनके सुधरने का इंतजार करना चाहिए।


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