संतोष: फलदायक:

 (इस आर्टिकल में हम 'संतोष: फलदायक:' इस कथन की समीक्षा करेंगे और जानेंगे कि इसके अनुसार चलना जीवन में लाभप्रद है अथवा नहीं।)


संतोष: फलदायक:

'संतोष: फलदायक:' का अर्थ है संतोष अर्थात 'किसी चीज से तृप्त अथवा जितना हो उसमें तृप्त रहना लाभदायक होता है।'वास्तव में जिसे जीवन में जितना ही अधिक वस्तुओं की प्राप्ति होती जाती है, वह 'और चाहिए और चाहिए' की महत्वाकांक्षा से पीड़ित होता जाता है लेकिन ऐसा करना उसके लिए कई परेशानियों को जन्म देता है। एक महत्वाकांक्षी मनुष्य अथवा जीव ना सिर्फ मानसिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी परेशान रहता है। इस प्रकार ना तो उसका वर्तमान जीवन सुखी रहता है ना ही मरने के बाद उसकी आत्मा को शांति मिलती है, इसलिए शास्त्रों में कहा गया है, 'संतोष: फलदायक:' जो भी मनुष्य इस विचारधारा को जीवन में अपनाकर अपने लिए निर्धारित सभी कार्यों को प्रसन्नता से करता है, वह अपने जीवन में हमेशा सुखी रहता है।


संतोष: फलदायक: विचारधारा से जीवन में लाभ

जो कोई भी श्रद्धा से इस बात को स्वीकार करता है कि उसके पास जितना है, उतने में वह संतोष के साथ जीवन व्यतीत करेगा, वह निश्चित ही संतोष भरा जीवन जीता है। वह अनेक प्रकार के तनाव से दूर रहता है। ऐसे तनाव जो हमारे शरीर को अस्वस्थ कर देते हैं, केवल संतोष भरा जीवन जीने के कारण हम उनसे बच जाते हैं और एक स्वस्थ जीवन जीते हैं। क्योंकि स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है तो इस कारण संतोषी जीवन जीकर हम धनी बन जाते हैं। प्रतिभा के धनी, दिल के धनी और डॉक्टरों के पास जाने वाला धन बचता है तो इस प्रकार वास्तव में भी धनी बन जाते हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो 'संतोष: फलदायक:' विचारधारा को अपनाकर हम लाभ ही लाभ पाते हैं।

संतोष के लिए सुविचार



संतोष: फलदायक: विचारधारा से जीवन में हानि

संतोष: फलदायक: इस विचारधारा से हमारे जीवन में संतोष तो रहता है लेकिन यह संतोष हमें और आगे बढ़ने की क्षमता प्रदान नहीं करता। हम केवल यही सोच कर आगे नहीं बढ़ पाते कि हमारे पास जितना है, हमें उतने में ही संतोष से जीवन गुजारना है।
यदि एक विद्यार्थी को जितना अंक परीक्षा में मिल रहा है उतने से ही संतुष्ट हो जाए तो उसे और अच्छे अंक मिलना मुश्किल है।
यदि एक व्यापारी अपने होने वाले लाभ से संतुष्ट हो जाए तो वह अपने व्यापार में और अधिक मेहनत नहीं कर पाता। इसी प्रकार यदि कोई गृहिणी अपनी थोड़ी सी प्रशंसा से संतुष्ट हो जाए तो वह अपने घर परिवार के लिए बहुत कुछ करने की विचारधारा से वंचित रह जाती है। कर्म ऐसा क्षेत्र है, जिसमें हमें 'और करना है, और करना है' यह सोचकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।
अतः कर्म के क्षेत्र में हमें संतोष नहीं करना चाहिए बल्कि महत्वाकांक्षी बनना चाहिए तभी हम जीवन में असंभव को भी संभव बना सकते हैं।


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