संशयात्मा विनश्यति.... लेकिन संशय की भी आवश्यकता है!

 (संशयात्मा विनश्यति... यह भगवत गीता के चौथे अध्याय का 40 वां श्लोक है। इस आर्टिकल में इसकी आलोचनात्मक व्याख्या की गई है तथा आज के युग में इसके महत्व का वर्णन किया गया है।)




अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च   संशयात्मा    विनश्यति।
नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।।

              (भगवत गीता अध्याय- 4.ज्ञान                कर्म सन्यास योग;                                श्लोक- 40)

श्लोक का भावार्थ

उपर्युक्त श्लोक भगवान श्री कृष्ण द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का 40 वा श्लोक है। इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का संदेश देते हुए ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं तथा उस ज्ञान पर शंका करने वालों के लिए यह कहते हैं -
  "हे अर्जुन, विवेकहीन और श्रद्धा रहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।"

श्लोक की व्याख्या

जब अर्जुन अपने कर्तव्य पथ से विचलित होने लगता है अर्थात युद्ध करने से इंकार कर देता है, तब भगवान श्रीकृष्ण उसे अनेकानेक ज्ञान की बातें बताते हैं, जिससे अर्जुन का ज्ञान नष्ट हो जाए और वह अपने कर्तव्य का पालन कर सके। जब भगवान उसे सृष्टि के शाश्वत सत्य और ज्ञान की बातें बताते हैं, अर्जुन के और अपने पिछले जन्मों के कई बृत्तांतो को सुनाते हैं, तब अर्जुन के मन में अनेक शंकाएं उत्पन्न होती हैं। भगवान एक-एक करके सभी शंकाओं का समाधान करते हैं और अर्जुन से ज्ञान के श्रेष्ठ होने की बात कहते हैं।

भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि वह अपने भीतर उत्पन्न सभी संशयों अर्थात शंकाओं को त्याग दे, क्योंकि केवल विवेकहीन  और श्रद्धारहित मनुष्य को ही बात- बात पर शंका होती है, किसी भी ज्ञानीजन में किसी प्रकार की कोई शंका शोभा नहीं देती। 
श्रद्धाहीन पुरुष अपने अज्ञान के कारण संशयों अर्थात शंकाओं के अधीन हो जाता है और यह संशय उसे कहीं भी चैन से जीने नहीं देते। वह अपने पथ से भ्रष्ट हो जाता है, अपने कर्तव्य मार्ग से भटक जाता है। ऐसे संशय करने वाले मनुष्य को ना जीते जी पृथ्वी पर कहीं चैन मिलता है ना मरने के बाद परलोक में ही सुख-चैन मिलता है।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह अपने भीतर उत्पन्न सभी संशयों का परित्याग कर दे तथा वर्तमान में अपने कर्तव्य कर्म को श्रद्धा से निभाए।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा इस श्लोक में जो कुछ भी कहा गया है, इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि हम किसी भी चीज पर आंख मूंदकर उस पर विश्वास कर लें, अंधविश्वासी बन जाए।

 बल्कि उनके कहने का तात्पर्य यह है, हमें हर बात  में खास करके प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सृष्टि के ज्ञान के विषय में बिल्कुल भी संशय नहीं करना चाहिए, यदि संशय है तो उस  संशय को  ज्ञान से दूर कर देना चाहिए। चाहे विज्ञान का सहारा लेना पड़े, मोटे- मोटे ग्रंथों को पढ़ना पड़े अथवा ज्ञानी पुरुषों से संपर्क बनाना पड़े। कुछ भी करके अपने भीतर के संशय को नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि यदि हमारे भीतर संशय है, तो वह हमारी अज्ञानता का प्रतीक है, छोटे- से संशय केे कारण हमारी एकाग्रता नष्ट हो जाती है, हम कभी-ना- कभी निरंतर उसे ही सोचतेेे रहते हैं और इसी कारण अपनेेे  वर्तमान कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं निभा पाते।

संशय अर्थात शंका का अर्थ

जब हम किसी बात पर पूरी तरह से विश्वास नहीं कर पाते, हम सोचते हैं कि क्या यह सच भी हो सकता है? या फिर यह अफवाह है, कभी-कभी हमें समझ भी नहीं आता की कही गई बात सच्ची है अथवा झूठी। इसी अवस्था को हम संशय अर्थात शंका (doubt) कहते हैं।

क्या हमारे जीवन में संशय अर्थात शंका भी जरूरी है?
यह एक अजीब प्रश्न हो सकता है, लेकिन सच तो यह है की बहुत सी बातों पर शंका करना कभी-कभी लाभकारी भी होता है। विवेकहीन पुरुष को बात- बात पर शंका नहीं करनी चाहिए, लेकिन शंकाओं से ही नए प्रश्नों का निर्माण होता है तथा उनका उत्तर मिलने पर हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। यह बात शत- प्रतिशत सत्य है।
हर बात पर आंख मूंदकर भरोसा करना हमें किसी मुसीबत में भी डाल सकता है इसलिए किसी पर भरोसा करने से पहले मन में अपनी एक शंका का समाधान अवश्य करना चाहिए कि क्या सामने वाला हमारे विश्वास के योग्य है।

अगर आप कोई नया काम करने जा रहे हैं, तू पहले अपनी शंका का समाधान कर लीजिए कि क्या आप इस कार्य को करने के योग्य है और यदि नहीं है तो क्या आप अपने आप को उस योग्यता से परिपूर्ण कर सकते हैं क्योंकि शंका के साथ जब आप उस कार्य को करेंगे असंभव ही वह कार्य अधूरा ही रह जाएगा।

जैसे हमारे जीवन में आलस्य की आवश्यकता है एक पर्याप्त मात्रा में क्योंकि यदि आलस्य के वशीभूत हम कुछ देर आराम नहीं करेंगे तो हमारा मस्तिष्क भली-भांति काम नहीं कर सकेगा।
जैसे क्रोध बुरा होने पर भी हमें अपने जीवन में उसकी आवश्यकता पड़ती है क्योंकि कभी-कभी क्रोध का प्रदर्शन करके भी हम अपने से छोटे अथवा अपने मित्रों का अहित होने से बचा सकते हैं। यदि बच्चा जिद में आकर अपना भविष्य बर्बाद करने लगे, तू ऐसे समय में माता-पिता का पूरा कर्तव्य बनता है कि वे क्रोध करें जब बात प्रेम से न बनती हो।

जैसे आलस्य, क्रोध आदि चीजें बुरी होते हुए भी हमें अपने जीवन में उनकी आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आवश्यकता पड़ने पर संशय करना भी जरूरी हो जाता है, लेकिन यह भी जरूरी है कि आप अपने उस संशय का समाधान भी कर दें।


आज के युग में संशय कितना जरूरी?

आज जो दौर चल रहा है उसमें हम किसी भी व्यक्ति अथवा विज्ञापन या किसी की कही गई बात पर बिना सोचे समझे बिल्कुल भी विश्वास नहीं कर सकते। समय के अनुसार नीतियों में परिवर्तन आता रहता है। यह जरूरी नहीं कि हम हर बात पर तर्क करना शुरू कर दें, अपनी बुद्धि का प्रयोग करें और सोचें कि हमें कहां तर्क करना है और कहां नहीं। जैसे गणित के सूत्रों का सही प्रयोग करने पर ही सवाल सही होता है उसी प्रकार तर्क वितर्क और शंका भी सही प्रकार से प्रयोग में लाई जानी चाहिए।

जब हम अपने जीवन में शंका और तर्क- वितर्क कब और किससे करना है, किस अवस्था में करना है इतना समझने योग्य हो जाएंगे, तब हमसे कोई विश्वासघात भी नहीं कर सकेगा और ना ही हम किसी अपने का दिल दुखा पाएंगे।
यदि कोई बच्चा अपने माता-पिता से तर्क करे अथवा उन पर शंका करे, जो उसे अच्छी बातें सिखाते हों, तो वह अपने जीवन में कभी भी प्रगति के पथ पर नहीं जा सकता।

शंका हमें उन पर करनी चाहिए जो हमें गलत रास्ते पर चलने की सीख देते हैं, उन पर विश्वास करना हमारे जीवन की बहुत बड़ी भूल हो सकती है।

तरह-तरह की वस्तुओं को बेचने के लिए किए जा रहे विज्ञापनों पर हमें अवश्य शंका करनी चाहिए, यह सोचना चाहिए कि क्या इन विज्ञापनों में सच्चाई है, इससे हम अनेक प्रकार की हानियों से बच सकते हैं।

हर नागरिक को वोट देने के अपने अधिकार का प्रयोग करने से पहले जिसे वह वोट दे रहा है उसकी बातों पर शंका करनी चाहिए और सोचना चाहिए कि क्या सामने वाला जिसे हम अपना कीमती वोट दे रहे हैं, वह वास्तव में अपने किए हुए वादों को निभाएगा? हमारी इस एक शंका से देश में गलत प्रकार से राजनीति करने वालों का वर्चस्व कम होता जाएगा।

यदि कोई विद्यार्थी पहले ही अपने मन में शंका को स्थान दे दे कि वह पढ़ पाएगा कि नहीं अथवा अपने जीवन में एक सफल व्यक्तित्व बन पाएगा कि नहीं, तो यह एक शंका उसके सफल विद्यार्थी जीवन को नष्ट कर सकती है। अतः उसे दृढ़ विश्वास के साथ अपने जीवन की सभी बुराइयों को दूर करते हुए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और अपनी सभी शंकाओं का समाधान करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।

सार यह है कि हमें हर उस बात पर शंका करनी चाहिए, जो हमें अपने कर्तव्य कर्म को करने से रोकती है और हर उस बात पर विश्वास करना चाहिए जो हमें अपने कर्तव्य कर्म को भलीभांति निभाने की प्रेरणा देता है।

निष्कर्ष

भगवान श्री कृष्ण द्वारा भगवतगीता के चौथे अध्याय के 40 वें श्लोक में संशयात्मा विनश्यति...... का यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हर बात में शंका करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य पथ से भटक जाता है और ऐसा मनुष्य कहीं भी चैन से नहीं रह सकता जो  शत प्रतिशत सत्य हैै, ऐसा हम अपने आसपास लोगों में देखते भी हैं। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा बिल्कुल नहीं कहा है कि हमें किसी भी बात पर आंख मूंदकर विश्वास करना चाहिए अथवा अंधविश्वासी बन जाना चाहिए।
अनेक ऐसे भी लोग होते हैं जो अर्थ का अनर्थ निकालकर शास्त्रों की बातों को गलत प्रकार से अपने जीवन में उतारते हैं, समय आने पर उन्हें इसका भुगतान भी करना पड़ता है लेकिन बाद में पछताने से क्या लाभ?

हमें भगवान श्री कृष्ण द्वारा कहे गए इस श्लोक का सही- सही अर्थ समझ कर उसे अपने जीवन में अवश्य ही प्रयोग में लाना चाहिए और यदि कोई गलत अर्थ रखता भी है तो उसे सही अर्थ समझा कर उसका कर्तव्य याद दिलाना चाहिए।




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