डर(हिंदी कविता)
डर ने हमसे क्या-क्या छीना!
डर-डर के अब क्यों जीना?
क्यों घुट-घुट कर आंसू पीना
डर के बिना जिंदगी होगी एक हसीना।
बचपन बीता डर ही डर में
कभी टीचर के डंडे का डर,
कभी मीठी डांटे सुनने का डर।
उन बातों को सोच कर मज़ाआए जीने में।
आई जवानी नए-नए डर ने घेरा,
कभी नौकरी ना मिलने का डर,
कभी नौकरी के जाने का डर।
कभी शादी और प्यार का डर।
कभी सब कुछ खो जाने का डर
पत्नी को पति का डर,
पति को पत्नी का डर,
दोनों को बच्चों का डर।
बुढ़ापे में बीमारी का डर
बीमारी में दवाइयों का डर
मरकर मोक्ष न पाने का डर।
जीवन में पथ से भटकने का डर।
यह डर हमारे जीवन के पहले भी था और बाद में भी होगा।
जीवन में डर-डर कर, डर को यूं बदनाम ना करो।
थोड़ी मात्रा में यह भी जरूरी है, इसका सही उपयोग तो करो!
जब एक विजेता अपने हार के डर से घबराता है,
तभी जीवन के हर क्षेत्र में, विजयी बन पाता है।
जिसने डर से खुशी- खुशी दोस्ती कर ली,
हर असंभव को वह संभव करके दिखाता है।
किसी ने सच ही कहा है...डर के आगे जीत है।
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