कर्म ही पूजा है।

(इस आर्टिकल में "कर्म ही पूजा है।" इस वाक्य की व्याख्या दी गई है, इसके लिए भगवत गीता के एक प्रसिद्ध श्लोक एवं रामचरितमानस की एक चौपाई का संदर्भ सहित विवरण दिया गया है।)

कर्म ही पूजा है।

कर्म करना जीवन में हर किसी के लिए उसकी जरूरत भी है और आवश्यकता भी, क्योंकि बिना कोई कर्म किए कोई भी जीव, चाहे वह कितना ही सर्व समर्थ क्यों ना हो जीवित नहीं रह सकता। यदि किसी के पास जीवन में सब कुछ है , तो भी बिना कोई कर्म किए वह अपने जीवन का निर्वाह नहीं कर सकता। पशु -पक्षी से लेकर पेड़- पौधों तक को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कर्म करना ही पड़ता है। यदि पौधे सूर्य प्रकाश की मदद से अपना भोजन न बनाएं, यानी अपना कर्म ना करें, तो उन पर आश्रित अन्य जीव भी अपने जीवन को चलाने का कर्म संचालित नहीं कर पाएंगे। कोई भी हो, उसे अपने जीवन निर्वाह एवं दूसरों को सहयोग करने के लिए कर्म करना अनिवार्य है। इसलिए कहा गया है, कि "कर्म ही पूजा है।"

      

     भगवान भी मनुष्य के किए गए कर्मों से ही प्रसन्न होते हैं। किसी भी धर्म में अच्छा कर्म करने पर ज़ोर दिया गया है, क्योंकि अच्छा कर्म मनुष्य को सन्मार्ग के पथ पर ले जाता है। सन्मार्ग के पथ पर चल कर ही मनुष्य मोक्ष का लक्ष्य प्राप्त करता है।

यदि कोई मनुष्य केवल दिन रात सिर्फ देवी देवताओं की पूजा करे, अपना दैनिक का़र्य ना करें, किसी के काम ना आए, तो क्या ईश्वर उससे प्रसन्न हो जाएंगे? बिल्कुल नहीं!

वास्तव में धार्मिक व्यक्ति वही है, जो धर्म की बात माने, गीता, कुरान, बाइबल आदि धर्म ग्रंथों में जो महान ज्ञान दिया गया है, वह वास्तव में हमें अच्छे कर्म की ओर ले जाने के लिए ही, दिया गया है।

भगवत गीता जो हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें पुरुषोत्तम अवतार भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं अपने मुख से मनुष्य के जीवन में अच्छे कर्म का महत्व बतलाया है। अपने हर कार्य से श्रीराम और श्रीकृष्ण ने मनुष्य को केवल यही संदेश दिया है, कि  ईश्वर को भी धरती पर अपने जीवन को चलाने के लिए अपना हर कर्तव्य, निष्ठा से निभाना पड़ा, जो  मनुष्य के लिए पथ प्रदर्शक होना चाहिए। अतः जो वास्तव में भगवत भक्त है, वह अपना हर कर्तव्य अवश्य ही भली भांति निभाएगा।


किसी भी धर्म में पूजा-पाठ आदि करने से, हमारे मन को शांति और तरो- ताजगी मिलती है, जिससे हमें अपना हर कार्य भली-भांति करने की शक्ति मिलती है। धूप -अगरबत्ती तथा हवन आदि स्थान- विशेष को पवित्र करने और सकारात्मक ऊर्जा देने में लाभकारी होते हैं। अतः इन सब का हमारे जीवन में इतना ही उपयोग है, कि हम शांत मन से, सकारात्मक ऊर्जा के साथ जीवन के हर कर्तव्य को निष्ठा से निभाएं।

भगवत गीता जिसे पढ़कर विवेकानंद जैसे आदर्श महापुरुष ने अपने जीवन में उत्तम कर्म का रास्ता अपनाया ऐसे ही महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसे महान पुरुषों ने भी गीता से कर्म की महानता को अपने जीवन में उतारा और इतिहास में अपना नाम अमर बनाया। भगवत गीता में अपना कर्म करने की प्रेरणा देने वाला श्री कृष्ण का श्लोक शायद ही कोई नहीं जानता होगा!

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए अपना कर्म करने पर जोर दिया है। उन्होंने कहा है ,कि-


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भर्मा  ते संगोस्त्व कर्मणि।।

    (अध्याय-2; श्लोक-47)

 

जब अर्जुन मोह के वशीभूत होकर युद्ध भूमि से पलायन करने लगा तथा अपने क्षत्रिय धर्म से, अपने कर्तव्य से अपने को विमुख करने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे उसका क्षत्रिय धर्म समझाते हुए यह श्लोक भगवत गीता में कहा था।

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कि "हे अर्जुन, मनुष्य को केवल अपना कर्तव्य करना चाहिए ।उस कर्तव्य पालन से मिलने वाले फल की आशा नहीं रखनी चाहिए और ना ही इच्छा करनी चाहिए। मनुष्य को केवल कर्तव्य करने का अधिकार है फल की इच्छा रखने का अधिकार नहीं है। लेकिन फल की इच्छा ना रखने का यह अर्थ नहीं, कि मनुष्य अपना कर्तव्य करना ही छोड़ दें। अतः तू क्षत्रिय धर्म का कर्तव्य निभाते हुए युद्ध कर, क्योंकि यही तेरा कर्तव्य है।"

भगवान श्री कृष्ण ने यह श्लोक अर्जुन को निमित्त बनाते हुए संपूर्ण मानव समाज से कहा है। प्रत्येक मनुष्य को छोटा या बड़ा जैसा भी काम है, उसे रुचि के साथ भली-भांति करना चाहिए।

कुछ लोग इस श्लोक के अर्थ को नेगेटिव तरीके से प्रयोग में लाते हैं, उन लोगों का कहना होता है, कि अच्छा बुरा जैसा भी काम हो, परिणाम सोचे बिना उसे करना चाहिए। लेकिन यह भी सच है, जब किसी अर्थ को सही तरीके से समझे बिना बुरा कर्म करेंगे, तो उसका फल या परिणाम आपको बुरा ही मिलेगा। भगवान ने यहां पर ऐसे कर्म की बात की है, जो आपके जीवन को चलाने के लिए और मानव समाज के कल्याण के लिए आवश्यक है। अतः इस श्लोक का सही अर्थ ही हमें अपने जीवन में प्रयोग में लाना चाहिए।


कर्म ही भाग्य का निर्माता है।

आज हम जो कुछ भी हैं, वह हमारे पहले किए हुए कर्मों का परिणाम है। आगे हम जो कुछ भी होंगे, वर्तमान के किए गए कार्यों के अनुसार ही होंगे। हमारे द्वारा किया गया अच्छा-बुरा काम ही हमारे भविष्य का निर्धारण करता है।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इस बात को बड़ी ही सुंदरता के साथ लिखा है-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।
सकल पदारथ है जग माहीं।
कर्महीन नर पावत नाहीं ।।
(रामचरितमानस-अयोध्या कांड)

सीता राम लक्ष्मण के वन गमन के समय, जब निषादराज गुह सीता और राम के वनवास से होने वाले दुख का दर्शन करते हुए लक्ष्मण जी से इसका कारण पूछते हैं, तो लक्ष्मण जी कहते हैं कि,"मनुष्य हो या ईश्वर सभी को अपने किए गए कर्मों का भुगतान करना ही पड़ता है, इसमें और किसी का कोई दोष नहीं है। सृष्टि कर्ता ने कर्म को विश्व में सबसे ऊंचा स्थान प्रदान किया है, अतः जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। आगे निषादराज गुह को समझाते हुए लक्ष्मण जी कहते हैं कि, विश्व में सभी पदार्थ जैसे सोना ,चांदी, अन्य सुख की वस्तुएं आदि भरे पड़े हैं, लेकिन जो मनुष्य कर्म नहीं करता, उन्हें पाने की चेष्टा नहीं करता, उसे यह पदार्थ कभी नहीं मिलते।"
यदि हम इस ज्ञान को आज के युग में अपने जीवन में उतार लें, तो न सिर्फ हम अपना कर्तव्य भली-भांति निभा पाएंगे बल्कि अपने दुख का कारण दूसरों को समझना भी छोड़ देंगे। इससे इर्ष्या-द्वेष तथा छल -कपट काफी हद तक कम हो जाएगा और समाज में शांति बनी रहेगी।


अपने अच्छे कर्म से बुरी स्थिति को बदला जा सकता है-

 यदि हम निष्ठा से वर्तमान में अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो निश्चित ही हमारा भविष्य सुनहरा होगा। जरूरी नहीं, कि हमें जीवन में सब कुछ मिल जाए, लेकिन आने वाला कल, आज से बेहतर तो बन ही सकता है।

यदि विद्यार्थी अच्छे से मन लगाकर पढ़ाई करे, अपने बड़ों का आदर करे तथा अपनी दिनचर्या के सभी कार्यों को भली-भांति निभाए, तो निश्चित ही अपने जीवन में एक सफल नागरिक बन सकता है। हो सकता है , कुछ अभाव के कारण अपने सपनों को पूरा ना कर सके, लेकिन यदि वह वर्तमान कर्तव्य ही अच्छे से ना निभाए, तो उसका वर्तमान और भविष्य सब कुछ बिगड़ जाता है।
यदि एक व्यापारी हानि के बारे में सोच कर अपने व्यापार को भली भांति संचालित ना करे, तो भविष्य में वह कभी भी एक सफल व्यापारी नहीं बन सकता।
अपने हर कार्य को करने से पहले यह जरूर सोचना चाहिए, कि मेरे द्वारा किए गए काम से किसी को कोई हानि ना हो, अथवा वह कार्य स्वयं को भविष्य को अनुचित पद पर ना ले जाए। इस बात को सोच- विचार कर अपना हर कर्तव्य हमें अच्छी तरह निभाना चाहिए।


निष्कर्ष

हम जिस पद पर भी हैं, चाहे वह पद चपरासी का हो, मंत्री का हो या कोई निम्न पद हो, हमें अपना हर कर्तव्य जिसे करने के लिए हमें यह पद प्रदान किया गया है, अवश्य एवं निष्ठा और लगन के साथ करना चाहिए। हमारा वर्तमान का किया हुआ कार्य ही हमारे लिए भी और दूसरों के लिए भी मार्ग प्रशस्त करता है। सूर्य, चंद्रमा, नदी, हवा यह सभी सृष्टि के तत्व अपना सभी कार्य समय पर करते हैं, तभी सृष्टि का संचालन हो पाता है। इसी तरह हमें भी अपना हर कार्य बिना रुके समय पर करना चाहिए। यही ईश्वर की सबसे बड़ी आराधना है। इसलिए कहा गया है कि,"कर्म ही पूजा है।"


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